आज़ादी के ७१ वर्ष बाद भी आज माँ हिंदी की स्थिति सोचनिये ही नहीं अपितु दयनीय हो चुकी है।वो पूरी तरह से समाप्ति के कगार पर आ गई है, अंग्रेजी भाषा से हारने के बाद अब
उसके समर्थक भी निराश हो चुके है और अपनी
मातृभाषा के पक्ष में बोलना छोड़ दिया है और उन्होंने अपने हथियार डाल दियें है, आज़ादी के समय में एक ही लक्ष्य था आज़ादी प्राप्त करना लेकिन उसके
पश्चात जो हुआ वो भारतीय इतिहास के लिए शर्मनाक और आजाद भारत की गुलाम भारतीय राजनीति के अधनंगेपन का प्रमाण था।
हिंदी भाषा
१९९० में उर्दू से पराजित हो गई आज़ादी के ४७ वर्षों में हिंदी के विरुद्ध एक नया
मोर्चा आया “हिन्दुस्तानी” मोदनदास कर्मचंद गाँधी पहले हिंदी के समर्थक हुआ करतें थे लेकिन अचानक
उन्हें ये आभास हुआ की देश को एकजुट रखने के लिए ऐसी भाषा हो जो सबकी हो किसी
एक धर्म, जाति, समुदाय या प्रांत की न हो तभी तो
हिंदी भाषा को राष्ट्रीय घोषित करने की बात छोड़ कर "हिन्दुस्तानी भाषा" को राष्ट्र भाषा
कहने लगे। गाँधी और उनके समर्थक हिंदी को छोड़ कर हिन्दुस्तानी भाषा के समर्थक बन गए
हिन्दुस्तानी भाषा कोई भाषा नहीं थी क्योकि किसी भी भाषा के लिए उसके व्याकरण
होना अनिवार्य होता है जो की हिन्दुस्तानी भाषा में नहीं था।
१९२०-२१ में खिलाफत
आन्दोलन के मध्य में मुसलमानों को अपने साथ
लेने की कोशिश की और उसी कोशिश में मुसलमानों के हिंदी विरोध को देखते हुए वे
हिन्दुस्तानी भाषा का झंडा ऊँचा करने लगे। १९०० से १९४७ का समय हिंदी भाषा के इहिहास का सबसे
संघर्ष पूर्ण समय रहा इस संघर्ष की अवधि में ही हिंदी भाषा की संघर्ष
यात्रा का स्वर्णिम इतिहास रचा गया था, सभी जगह
हिंदी का विरोध हो रहा था पूर्णरूप से कोशिश हो रही थी की हिंदी को समाज में कोई पहचान न
मिले लेकिन सही मायने में हिंदी और उसकी लोकप्रियता में विकास उस समय हुआ जब हिंदी को कोई भी
सरकारी संरक्षण नहीं मिला था और और जिस दिन से हिंदी भाषा को राष्ट्र भाषा
घोषित किया गया उसी दिन से
हिंदी की अवनति और दुर्दशा प्रारंभ हो गई।
हिंदी को
पुरे देश ने राष्ट्र की एक मात्र भाषा के रूप में स्वीकार किया, लेकिन संविधान सभा में देश की
राष्ट्र भाषा का सवाल आया तो उर्दू पक्षधर हिंदी के विरोधी हो गए वो खुले रूप से उर्दू को राजभाषा बनाने की बात नहीं कर सकते थे क्योंकी उर्दू
पाकिस्तान की राष्ट्र भाषा थी, लेकिन जब राजभाषा के सवाल पर विचार हो रहा था तो देश के प्रथम प्रधानमंत्री तथाकथित पंडित - नेहरु ने
मार्च १९४८ में मद्रास में ऐलान
किया की अगर हिंदी को राजभाषा स्वीकार किया गया तो वो उसका विरोध करेंगे, लेकिन नेहरू के सभी प्रयास विफल
रहे और हिंदी को राज्यभाषा का स्थान मिल गया।किन्तु उसका प्रयोग करना तो सरकार के हाथों
में होता है तो वो सभी कोशिश की गई
जिससे हिंदी को उसका स्थान न मिल सके और उन्होंने वो सब किया जिससे कभी भी हिंदी प्रभावी न हो
सके नेहरु में हिंदी और भारतीयता को लेकर विश्वास की भरपूर कमी थी शायद इसीलिए आज़ादी के बाद
विदेशो में राजदूत की नियुक्ति
में उन्ही लोगो को प्राथमिकता दी जिनका अग्रेजी भाषा में ज्ञान अधिक था और उनका व्यव्हार, जीवनशैली अंग्रेजो सी थी।
खैर हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित तो कर दिया गया
लेकिन उसके बावजूद अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व बना रहा क्योंकि हिंदी "राजभाषा" इस शर्त के साथ
बने गई थी की १५ वर्ष तक अंग्रेजी भाषा भी प्रयोग
सरकारी कामकाज में होता रहेगा और इस अवधि में हिंदी का विकास किया जायेगा नेहरु ने बहुमत के
निर्णय को अल्पमत पर जोर जबरदस्ती थोपने की बात कहकर
बहुमत को बदनाम करते हुए हिंदी विरोधियों के हाथों में एक हथियार पकड़ा दिया।
किसी भी देश
की आज़ादी, सभ्यता और संस्कृति उसकी भाषा पर निर्भर करती है सही मायने में पूर्णरूप से आज़ादी आज भी नहीं मिली है। हिंदी भाषा आज
अपने ही लोगो के हाथों से मिटाई जा रही है शासन और समाज के केंद्र में
अंग्रेज़ी है, आज समाज में श्रेष्ठता का
मूल्यांकन अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान बन गया है, यदि आपको
अंग्रेज़ी का ज्ञान नहीं है तो आपको वो स्थान नहीं मिलेगा जिसके आप योग्य है और यदि आपको
संस्कृत का ज्ञान है तो फिर तो आपको लोग मुर्ख ही समझेंगे शायद इसीलिए हिंदी माध्यम और
अंग्रेज़ी माध्यम से पढने वाले बच्चो में भेदभाव होता है। हिंदी भाषा को सिर्फ
दिखावे के लिए रखा गया है। उच्चस्तर या यू कहे शुद्ध हिंदी का प्रयोग
नहीं होता है और ना तो उसको समझना चाहता है कोई !
२१ वी शताब्दी के भारत में हिंदी भाषा का चलन नहीं रह गया है नेहरु और गाँधी के समय से भारत में हिन्दुस्तानी भाषा राष्ट्र भाषा और राज्य भाषा दोनों ही है और इसी भाषा का चलन है समाज में। हिन्दुस्तानी भाषा मुख्या रूप से हिंदी व उर्दू का मिला जुला मिश्रण है जो हिंदी भाषा के लिए या किसी भी अन्य भाषा के लिए ऐसे शब्दों का मिश्रण उस भाषा के अस्तित्व के लिए घातक है।
एक समय ऐसा भी था जब "हिंगलिश" भाषा का स्वरुप सामने आया "हिंगलिश" का विस्तार तब शुरू हुआ जब राजीव गाँधी प्रधानमंत्री हुआ करते थे, टीवी चैनल पर हिंगलिश भाषा का प्रयोग हो रहा था और फिल्मो में हिंदी बोलने वाला किरदार हास्य कलाकार का होता था और हिंदी बोलने वाले हँसी के पात्र बन गए थे जैसे की हिंदी "भाषा" ना हो कोई मजाक हो।
हिंदी की पत्रिकाओं और पुस्तकों के प्रथम प्रकाशनों की संख्या कभी ज्यादा नहीं रही। पहले १००० पुस्तके ही छापती थी, लेकिन अब तो मुश्किल से ५०० संस्करण आते है क्योकि आज ना तो हिंदी के कवियों को कोई पढता है ना तो सुनता और शायद यही कारण है कि न कोई उनको जनता है। दौर बदलतें रहे और उसके साथ बदलता रहा हिंदी भाषा का स्वरूप हिंदी भाषा को लेकर जब राजनीति शुरू हुई तो लगा की शायद अब स्थिति में कुछ बदलाव आएगा क्योंकि समान्यतः मान्यता है की किसी विषय पर राजनीतिक हुई तो उसकी अवस्था सुधरेगी और या तो पूर्णरूप से बिगड़ेगी, किन्तु भाषा की राजनीति भी हो गई लेकिन हिंदी की हालत ज्यो की त्यों बनी रही जब कभी कोई जमीन से जुड़ा कोई नेता आया तो लगा की शायद हिंदी की अब दुर्गति नहीं होगी लेकिन उसकी हालत में कोई सुधर नहीं हुआ बल्कि उसका स्तर और नीचे गिर गया, कुछ नेताओं ने तो अपने चुनावी भाषण में ना जाने क्या क्या वायदे कर दिये और आखिर में हिंदी का झंडा उठा लिया लेकिन कुर्सी पर बैठते ही हिंदी के प्रति उनकी वाचानवधता पर उनका राजनीतिक चक्रव्यूह भारी पड़ने लगा और सब कुछ भूल गये।
मुसलमानों के वोट की खातिर राजनेताओं को उर्दू से प्रेम होने लगा, उनको लगा की अगर हिंदी के समर्थन में बोलेंगे तो मुसलमानों का वोट चला जायेगा इसका जीता जागता उदाहरण है मुलायम सिंह यादव और समाजवादी पार्टी जो की उत्तर प्रदेश में हिंदी का राग अलाप रहे थे लेकिन अचनक सत्ता में आतें ही हिंदी के लिए प्रेम खत्म हो गया और मुसलमानों का वोट पाने हेतु उर्दू का समर्थन करने लगे जिसके कारण हिंदी की बची हुई जो इज्जात थी वो भी राजनीति की बलि चढ़ गई।
वोट बैंक की राजनीति और आपसी स्वार्थ की लालसा में हिंदी की बली चढ़ती रहेगी अहिन्दी भाषी प्रदेशो में भी नई पीढ़ी के अधिकांश बच्चो की मातृभाषा अंग्रेजी होती जा रही है वो बच्चे भी अंग्रेजी के अतिरिक्त न कोई भारतीय भाषा जानते है और नहीं जानने के इच्छुक है।
२१ वी शताब्दी के भारत में हिंदी भाषा का चलन नहीं रह गया है नेहरु और गाँधी के समय से भारत में हिन्दुस्तानी भाषा राष्ट्र भाषा और राज्य भाषा दोनों ही है और इसी भाषा का चलन है समाज में। हिन्दुस्तानी भाषा मुख्या रूप से हिंदी व उर्दू का मिला जुला मिश्रण है जो हिंदी भाषा के लिए या किसी भी अन्य भाषा के लिए ऐसे शब्दों का मिश्रण उस भाषा के अस्तित्व के लिए घातक है।
एक समय ऐसा भी था जब "हिंगलिश" भाषा का स्वरुप सामने आया "हिंगलिश" का विस्तार तब शुरू हुआ जब राजीव गाँधी प्रधानमंत्री हुआ करते थे, टीवी चैनल पर हिंगलिश भाषा का प्रयोग हो रहा था और फिल्मो में हिंदी बोलने वाला किरदार हास्य कलाकार का होता था और हिंदी बोलने वाले हँसी के पात्र बन गए थे जैसे की हिंदी "भाषा" ना हो कोई मजाक हो।
हिंदी की पत्रिकाओं और पुस्तकों के प्रथम प्रकाशनों की संख्या कभी ज्यादा नहीं रही। पहले १००० पुस्तके ही छापती थी, लेकिन अब तो मुश्किल से ५०० संस्करण आते है क्योकि आज ना तो हिंदी के कवियों को कोई पढता है ना तो सुनता और शायद यही कारण है कि न कोई उनको जनता है। दौर बदलतें रहे और उसके साथ बदलता रहा हिंदी भाषा का स्वरूप हिंदी भाषा को लेकर जब राजनीति शुरू हुई तो लगा की शायद अब स्थिति में कुछ बदलाव आएगा क्योंकि समान्यतः मान्यता है की किसी विषय पर राजनीतिक हुई तो उसकी अवस्था सुधरेगी और या तो पूर्णरूप से बिगड़ेगी, किन्तु भाषा की राजनीति भी हो गई लेकिन हिंदी की हालत ज्यो की त्यों बनी रही जब कभी कोई जमीन से जुड़ा कोई नेता आया तो लगा की शायद हिंदी की अब दुर्गति नहीं होगी लेकिन उसकी हालत में कोई सुधर नहीं हुआ बल्कि उसका स्तर और नीचे गिर गया, कुछ नेताओं ने तो अपने चुनावी भाषण में ना जाने क्या क्या वायदे कर दिये और आखिर में हिंदी का झंडा उठा लिया लेकिन कुर्सी पर बैठते ही हिंदी के प्रति उनकी वाचानवधता पर उनका राजनीतिक चक्रव्यूह भारी पड़ने लगा और सब कुछ भूल गये।
मुसलमानों के वोट की खातिर राजनेताओं को उर्दू से प्रेम होने लगा, उनको लगा की अगर हिंदी के समर्थन में बोलेंगे तो मुसलमानों का वोट चला जायेगा इसका जीता जागता उदाहरण है मुलायम सिंह यादव और समाजवादी पार्टी जो की उत्तर प्रदेश में हिंदी का राग अलाप रहे थे लेकिन अचनक सत्ता में आतें ही हिंदी के लिए प्रेम खत्म हो गया और मुसलमानों का वोट पाने हेतु उर्दू का समर्थन करने लगे जिसके कारण हिंदी की बची हुई जो इज्जात थी वो भी राजनीति की बलि चढ़ गई।
वोट बैंक की राजनीति और आपसी स्वार्थ की लालसा में हिंदी की बली चढ़ती रहेगी अहिन्दी भाषी प्रदेशो में भी नई पीढ़ी के अधिकांश बच्चो की मातृभाषा अंग्रेजी होती जा रही है वो बच्चे भी अंग्रेजी के अतिरिक्त न कोई भारतीय भाषा जानते है और नहीं जानने के इच्छुक है।
आज भारतीय भाषाओ के खंडहर पर अंग्रेजी के नए नए अंकुर फुट रहे है हिंदी का अन्य भाषाओ के साथ भी बहुत ही संघर्ष पूर्ण समय रहा है जब देश आज़ाद हुआ तो विवाद ये था की देश की भाषा हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी या हिन्दुस्तानी हो, हिंदी की पर्तिस्पर्धा किसी अन्य भाषा जैसे तमिल, तेलगु, गुजरती, मराठी आदि से नहीं थी ! शुरुवाती दौर में उर्दू और हिन्दुस्तानी के दावेदार अपने आप ही परिस्थिति वश परिदृश्य से हट गये अंत में केवल हिंदी और अंग्रेजी में ही ये युद्ध रह गया, लेकिन कांग्रेसी सरकार ने ऐसा मोड़ दे दिया जैसे की भाषा का विवाद केवल हिंदी और हिंदुस्तान की अन्य में है और अंग्रेजी भाषा भारतीय भाषाओँ के बीच देश की एकता बनाये रखने और पर्तिस्पर्धा को रोकने का एक मात्र उपाय हो। सरकार और अंग्रेजी को निष्पक्ष अनिवार्यता के रूप में पुरे देश पर सदा - सदा के लिए थोप दिया गया और आज स्थिति ये है की अगर देश की १ अरब से अधिक की जनता हिंदी को राजभाषा में प्रतिष्ठित करने की मांग करे और १ लाख लोगो उसका विरोध करे तो उनकी बात मानी जाएगी बाकि के १ अरब लोगो की बात नहीं मानी जाएगी यही है भारत का प्रजातंत्र का स्वरूप है !
मार्च २०११
में जब कांग्रेस सरकार में आय व्यय पत्र बनाया तो १०० करोड़ का अनुदान अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय को
दिया गया लेकिन शायद ही किसी को इसका आभास हो की संस्कृत के विषय के लिए कोई सहायता नहीं दी गई, इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा की भाषाओ की जननी संस्कृत की ये
दुर्दशा है शयाद यही हाल हिंदी का भी हो आने वाले समय में ?
आज हमारे
देश में भाषा और राज के नाम पर तनाव है कोई एक व्यक्ति लोगो को नुकसान पहुचता है क्योंकी वो उसकी
भाषा के नहीं है ये एक बड़ा सवाल है की क्या भाषा की आजादी अपने देश में
भी नहीं है और क्या उन लोगो के लिए मात्रभाषा हिंदी नहीं है ? अगर हिंदी भाषा को उसका सही स्थान
और सही मूल्य मिला होता तो आज यूँ भाषा के नाम पर
राजीनीति नहीं होती हिंदी की पराजय केवल हिंदी की पराजय नही है यह सभी भारतीय भाषाओं की
पराजय है अहिन्दी भाषी भारतीय प्रदेशो में एक नये भारत का निर्माण हो रहा है इसलिए साहित्य
पढने वालो की संख्या में कमी
होती जा रही है आज न जाने कितनी ही पत्रिकाएं है
जो आज पाठको के अभाव के कारण पत्रिकाएँ
या तो पाक्षिक हो गई या फिर बंद हो गई इसका उदहारण बंगाल की प्रसिद्ध पत्रिका "देश" हर घर में ऐसी अनिवार्य थी जैसे
कभी हिंदी भाषी घरो में "धर्मयुग ओर पांचजन्य"
अगर ऐसा ही
चलता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब ऐसी ही ना जाने कितनी ही हिंदी पत्रिकाएं बंद हो
जाएगी जैसे “धर्मयुग“ बंद हो गई।
अगर इसी तरह लोग हिंदी से अपना पला झाड़ते रहे तो वो दिन दूर नहीं जब वास्तव में हिंदी भाषा का अस्तित्व भी नहीं मिलेगा "हिंगलिश" और अंग्रेजी के वर्चस्व को देश से समाप्त किया जा सकता है लेकिन जब तक कोई सरकार अंग्रेजी के महत्व को समाप्त करके हिंदी और अन्य भाषाओ, तमिल, तेलगु, बंगला आदि की अस्मिता की रक्षा करके भारत में उनकी पुनः प्रतिष्ठित करे संभवत तभी देश में राष्ट्रीयता की भावना जागेगी और सम्पूर्ण देश फिर से विदेशी भाषा के स्थान पर एक स्वदेशी भाषा को राजभाषा के पद पर प्रतिष्ठित करेगा नि:सन्देश वो भाषा हिंदी होगी |
अगर इसी तरह लोग हिंदी से अपना पला झाड़ते रहे तो वो दिन दूर नहीं जब वास्तव में हिंदी भाषा का अस्तित्व भी नहीं मिलेगा "हिंगलिश" और अंग्रेजी के वर्चस्व को देश से समाप्त किया जा सकता है लेकिन जब तक कोई सरकार अंग्रेजी के महत्व को समाप्त करके हिंदी और अन्य भाषाओ, तमिल, तेलगु, बंगला आदि की अस्मिता की रक्षा करके भारत में उनकी पुनः प्रतिष्ठित करे संभवत तभी देश में राष्ट्रीयता की भावना जागेगी और सम्पूर्ण देश फिर से विदेशी भाषा के स्थान पर एक स्वदेशी भाषा को राजभाषा के पद पर प्रतिष्ठित करेगा नि:सन्देश वो भाषा हिंदी होगी |
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