नई दिल्ली : राकेश कुमार पाण्डेय, अनुडाक: mahaschiv.rakesh@gmail .com,bjp.rakeshpandey@gmail.com संपर्क: 0-9717311794
आज़ादी के ६४ वर्ष बाद भी आज हिंदी की स्थिति सोचनिये है ! वो पूरी तरह से समाप्ति के कगार पर आ गई है, अंग्रेजी भाषा से हारने के बाद अब उसके समर्थक भी निराश हो चुके है और अपनी मातृभाषा के पक्ष में बोलना छोड़ दिया है और उन्होंने अपने हथियार डाल दियें है, आज़ादी के समय में एक ही लक्ष्य था आज़ादी प्राप्त करना लेकिन उसके पश्चात जो हुआ वो भारतीय इहिहास के लिए और शासन प्रणाली के लिए बेहद निन्दनिये है !
हिंदी भाषा १९९० में उर्दू से पराजित हो गई आज़ादी के ४७ वर्षों में हिंदी के विरुद्ध एक नया मोर्चा आया हिन्दुस्तानी ! महात्मा गाँधी पहले हिंदी के समर्थक हुआ करतें थे लेकिन अचानक उन्हें ये एह्सश हुआ की देश को एक साथ बंधे रखने के लिए एक ऐसी भाषा हो जो सबकी की हो किसी एक धरम या जाती की न हो तभी तो हिंदी भाषा को राष्ट्रभाषा घोषित करने की बात छोड़ कर हिन्दुस्तानी भाषा को राष्ट्र भाषा कहने लगे और गाँधी और उनके समर्थक हिंदी को छोड़ कर हिन्दुस्तानी भाषा के समर्थक बन गए हिन्दुस्तानी भाषा कोई भाषा नहीं थी क्योकि किसी भी भाषा के लिए उसके व्याकरण होना अनिवार्य है जो की | हिन्दुस्तानी भाषा में नहीं था , १९२०-२१ में उन्होंने खिलाफत आन्दोलन के मध्य में मुसलमानों को अपने साथ लेने की कोशिश की | उसी कोशिश में मुसलमानों के हिंदी विरोध को देखते हुए वे हिन्दुस्तानी भाषा का झंडा ऊँचा करने लगे | १९०० से १९४७ का समय हिंदी भाषा के इहिहास का सबसे संघर्ष पूर्ण समय रहा, इस आवधि में हिंदी की संघर्ष यात्रा का सवार्निम इतिहाश रचा गया था , सभी जगह हिंदी का विरोध हो रहा था पूर्णरूप से कोशिश हो रही थी की हिंदी को समाज में कोई पहचान न मिले लेकिन सही मायने में हिंदी और उसकी लोकप्रियता में विकास उस समय हुआ जब हिंदी को कोई भी सरकारी संरक्षण नहीं मिला था और और जिस दिन से हिंदी भाषा को राष्ट्र भाषा घोषित किया गया उसी दिन से हिंदी की अवनति और दुर्दशा प्रारंभ हो गई !
हिंदी को पुरे देश ने राष्ट्र की एक मात्र भाषा के रूप में स्वीकार किया,लेकिन संविधान सभा में देश की राष्ट्र भाषा का सवाल आया तो उर्दू पक्षधर हिंदी के विरोधी हो गए,वो खुले रूप से उर्दू को राजभाषा बनाने की बात नहीं कर सकते थे क्योंकी उर्दू पाकिस्तान की राष्ट्र भाषा थी,लेकिन जब राजभाषा के सवाल पर विचार हो रहा था तो नेहरु जी ने मार्च १९४८ में मद्राश में ऐलान किया की अगर हिंदी को राजभाषा स्वीकार किया गया तो वो उसका विरोध करेंगे .लेकिन उनके सभी प्रयाश विफल रहे और हिंदी को राज्यभाषा का स्थान मिल गया किन्तु उसका प्रयोग करना तो सरकार के हाथों में होता है तो वो सभी कोशिश की गई जिससे हिंदी को उसका स्थान न मिल सके और उन्होंने वो सब किया जिससे कभी भी हिंदी प्रभावी न हो सके | नेहरु जी में हिंदी और भारतीयता को लेकर विश्वाश की कमी थी शायद इसीलिए तो आज़ादी के बाद विदेशो में राजदूत की नियुक्ति में उन्ही लोगो को प्राथमिकता दी जिनका अग्रेजी भाषा में ज्ञान अधिक था और उनका व्यव्हार और जीवनशेली अंग्रेज़ी थी | खैर हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित तो कर दिया गया लेकिन उसके बावजूद अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व बना रहा,क्योंकि हिंदी " राजभाषा " इस शर्त के साथ बने गई थी की १५ वर्ष तक अंग्रेजी भाषा भी प्रयोग सरकारी कामकाज में होता रहेगा और इस अवधि में हिंदी का विकास किया जायेगा ! नेहरु जी ने बहुमत के निर्णय को अल्पमत पर जोर जबरदस्ती थोपने की बात कहकर बहुमत को बदनाम करते हुए हिंदी विरोधियों के हाथों में एक हथियार पकड़ा दिया |
किसी भी देश की आज़ादी उसकी भाषा पर निर्भर करती है , सही मायने में पूर्णरूप से आज़ादी आज भी नहीं मिली है हिंदी भाषा आज अपने ही लोगो के हाथों से मिटाई जा रही है , शाशन और समाज के केंद्र में अंग्रेज़ी है, लेकिन आज समाज में श्रेष्ठता का मूल्यांकन अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान बन गया है , यदि आज आपको अंग्रेज़ी का ज्ञान नहीं है तो आपको वो स्थान नहीं मिलेगा जिसके आप योग्य है और यदि आपको संस्कृत का ज्ञान है तो फिर तो आपको लोग मुर्ख ही समझेंगे शायद इसीलिए हिंदी माध्यम और अंग्रेज़ी माध्यम से पढने वाले बच्चो में भेदभाव होता है ! हिंदी भाषा को सिर्फ दिखावे के लिए रखा गया है उचस्तर की हिंदी का प्रयोग नहीं होता है और ना तो उसको समझना चाहता है , २१ वी शताब्दी के भारत में हिंदी भाषा का चलन नहीं रह गया है नेहरु और गाँधी जी के समय से भारत में हिन्दुस्तानी भाषा राष्ट्र भाषा और राज्य भाषा दोनों ही है और इसी भाषा का चलन है समाज में ,हिन्दुस्तानी भाषा मुख्या रूप से हिंदी , उर्दू का मिला जुला मिश्रण है जो हिंदी भाषा के लिए बेहद ही घातक है या यु कहें की किसी भी भाषा के लिए ऐसे शब्दों का मिश्रण उस भाषा के अस्तित्व के लिए घातक है | एक समय ऐसा भी था जब "हिंगलिश "भाषा का स्वरुप सामने आया "हिंगलिश "का विस्तार तब शुरू हुआ जब श्री राजीव गाँधी जी प्रधानमंत्री हुआ करते थे , टीवी चेनल पर हिंगलिश भाषा का प्रयोग हो रहा था और फिल्मो में हिंदी बोलने वाला किरदार हास्य कलाकार का होता था और हिंदी बोलने वाले ह्सी के पात्र बन गए थे जैसे की हिंदी " भाषा " ना हो कोई मजाक हो !
हिंदी की पत्रिकाओं और पुस्तकों के प्रथम प्रकाशनों की संख्या कभी ज्यादा नहीं रही ! पहले १००० पुस्तके ही छापती थी , लेकिन अब तो मुश्किल से ५०० संस्करण आते है क्योंकि आज ना तो हिंदी के कवियों को कोई पढता ना सुनता है और नहीं कोई जनता है जिसके कारण उनका कोई भी सम्मान नहीं है समाज में और नहीं पहचान | दौर बदलतें रहे और उसके साथ बदलता रहा हिंदी भाषा का स्वरूप , हिंदी भाषा को लेकर जब राजनीति शुरू हुई तो लगा की शायद अब स्थिति में कुछ बदलाव आएगा किन्तु भाषा की राजनीति भी हो गई लेकिन हिंदी की हालत ज्यो की त्यों बनी रही , जब कभी भी लगा की जमीन से जुड़ा कोई नेता आया तो लगा की शायद हिंदी की अब दुर्गति नहीं होगी लेकिन उसकी हालत में कोई सुधर नहीं हुआ बल्कि उसका स्तर और निचे गिर गया, कुछ नेताओं ने तो अपने चुनावी भाषण में ना जाने क्या क्या वायदे कर दिए और आखिर में हिंदी का झंडा उठा लिया लेकिन कुर्सी पर बैठते ही हिंदी के प्रति उनकी वाचानवधता पर उनका राजनितिक चकार्विउहू भारी पड़ने लगा और सब कुछ भूल गए , मुसलमानों के वोट की खातिर राजनेताओं को उर्दू से प्रेम होने लगा,उनको लगा की अगर हिंदी के के समर्थन में बोलेंगे तो मुसलमानों का वोट चला जायेगा इश्का जीता जागता उदाहरण है मुलायम सिंह यादव और समाजवादी पार्टी जब उत्तर प्रदेश में हिंदी का राग अल्लाप रहे थे लेकिन अचनक सत्ता में आतें ही हिंदी के लिए प्रेम खत्म हो गया और मुसलमानों का वोट लेने के लिए उर्दू का समर्थन करने लगे , जिसके कारण हिंदी की बची हुई जो इज्जात थी वो भी राजनीति की बलि चढ़ गया ! वोट बैंक की राजनीति और आपसी स्वार्थ की लालसा में हिंदी की बली चढ़ती रहेगी, अहिन्दी भाषी प्रदेशो में भी नई पीढ़ी के अधिकांश बच्चो की मातृभाषा अंग्रेजी होती जा रही है | वो बच्चे भी अंग्रेजी के अतिरिक्त न कोई भारतीय भाषा जानते है और नहीं जानने के इकछुक है !
आज भारतीय भाषाओ के खंडहर पर अंग्रेजी के नए नए अंकुर फुट रहे है...!हिंदी का अन्य भाषाओ के साथ भी बहुत ही संघर्ष पूर्ण समय रहा है , जब देश आज़ाद हुआ तो विवाद ये था की देश की भाषा हिंदी, उर्दू , अंग्रेजी या हिन्दुस्तानी हो ! हिंदी की पर्तिस्प्रधा किसी अन्य भाषा , जैसे तमिल , तेलगु , गुजरती आदि से नहीं थी | शुरुवाती दौर में उर्दू और हिन्दुस्तानी के दावेदार अपने आप ही , परिस्थिति वश , परिदृश्य से हट गए ! अंत में केवल हिंदी और अंग्रेजी में ही ये युद्ध रह गया है लेकिन कांग्रेसी सरकार ने ऐसा मोड़ दे दिया जैसे की भाषा का विवाद केवल हिंदी और हिंदुस्तान की अन्य में है और अंग्रेजी भाषा भारतीय भाषाओँ के बीच देश की एकता बनाये रखने और पर्तिस्प्रधा को रोकने का एक मात्र उपाय हो , सरकार और अंग्रेजी को निष्पक्ष अनिवार्यता के रूप में पुरे देश पर सदा सदा के लिए थोप दिया गया | आज स्थिति ये है की अगर देश की १ अरब की जनता हिंदी को राजभाषा में प्रतिष्ठित करने की मांग करे और १ लाख लोगो उसका विरोध करे तो उनकी बात मानी जाएगी , उन बाकि के १ अरब लोगो की बात नहीं मानी जाएगी यही है भारत का प्रजातंत्र का स्वरूप है !
मार्च २०११ में जब कांग्रेस सरकार में आय व्यय पत्र ( Budget ) बनाया तो १०० करोड़ का अनुदान अलीगढ मुस्लिम विश्वविधयालय को दिया गया , और ५० करोड़ हिंदी के लिए दिए गए लेकिन शायद ही किसी को इसका अहसाश हो की संस्कृत के विषय के लिए कोई सहायता नहीं दी गई , इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा की भाषाओ की जननी संस्कृत की ये दुर्दशा है भारत में कहीं यही हाल तो हिंदी का नही होगा आने वाले समय में |
आज हमारे देश में भाषा और राज के नाम पर तनाव है कोई एक व्यक्ति लोगो को नुकसान पहुचता है क्योंकी वो उसकी भाषा के नहीं है , ये एक बड़ा सवाल है की क्या भाषा की आजादी अपने देश में भी नहीं है और क्या उन लोगो के लिए मात्रभाषा हिंदी नहीं है ? अगर हिंदी भाषा को उसका सही स्थान और सही मूल्य मिला होता तो आज यु भाषा के नाम पर राजीनीति नहीं होती |हिंदी की पराजय केवल हिंदी की पराजय नही है | यह सभी भारतीय भाषाओं की पराजय है , आज आप किसी अंग्रेजी माध्यम से पड़ने वाले बचे के सामने बोलेंगे " सेंतिश " तो वो नहीं समझेगा और "उन्तालिश " ? का मतलब ? आप उसको अंग्रेजी में बोलेंगे " थिर्टी सेवेन " तो वो तुरंत ही समझ जायेगा | अहिन्दी भाषी भारतीय प्रदेशो में एक नये भारत का निर्माण हो रहा है इसलिए साहित्य पढने वालो की संख्या में कमी होती जा रही है, आज न जाने कितनी ही पत्रिकाएं है जो पाक्षिक हो गई है , उदहारण के तौर पर बताना चाहूँगा की बंगाल की प्रसिद्ध पत्रिका " देश " हर घर में ऐसी अनिवार्य थी जैसे कभी हिंदी भाषी घरो में " धर्मयुग " | आज पाठको के अभाव के कारण पत्रिकाएँ या तो पाक्षिक हो गई या फिर बंद हो गई , अगर ऐसा ही चलता रहा तो वो दिन दूर नहीं , जब “ देश ” और ऐसी ही ना जाने कितनी ही हिंदी पत्रिकाएं बंद हो जाएगी जैसे “ धर्मयुग “ बंद हो गई . | पिछली शताब्दी के तीसरे दसक में, जब लार्ड विलियम बेंटिक भारत के गवर्नर था, तब हिन्दुस्तानियों को अंग्रेजी शिक्षा देने की वकालत मिकौले नि की थी | उसका कहना था की हिन्दुस्तानियों को अंग्रेजी शिक्षा देकर " एक ऐसे लोगो के वर्ग का निर्माण करना चाहिए , जो रंग और रक्त में हिन्दुस्तानी हो , लेकिन अपनी रुचियों , अपने चिंतन , अपने चरित्र और अपनी बुध्ही में एक दम अंग्रेज हो .......!
अगर इसी तरह लोग हिंदी से अपना पला झाड़ते रहे तो वो दिन दूर नहीं जब वास्तव में हिंदी भाषा का अस्तित्व भी नहीं मिलेगा , " हिंगलिश " और अंग्रेजी के वर्चस्व को देश से समाप्त किया जा सकता है लेकिन जब तक कोई सरकार अंग्रेजी के महत्व को समाप्त करके हिंदी और अन्य भाषाओ , तमिल, तेलगु , बंगला , आदि की अस्मिता की रक्षा करके भारत में उनकी पुनह प्रतिष्ठित करे | संभवत तभी देश में राष्ट्रीयता की भावना जागेगी और सम्पूर्ण देश , फिर से विदेशी भाषा के स्थान पर एक स्वदेशी भाषा को राजभाषा के पद पर प्रतिष्ठित करेगा | नि :सन्देश वो भाषा हिंदी होगी |
राकेश कुमार पाण्डेय
( महासचिव युवा ब्रह्मिन महा सभा)
०-9717311794