इस प्रार्थना की रचना नरहरि नारायण भिड़े
[1] ने फरवरी १९३९ में की थी। इसे सर्वप्रथम २३ अप्रैल १९४० को पुणे के संघ शिक्षा वर्ग में गाया गया था। यादव राव जोशी ने इसे सुर प्रदान किया था।
लड़कियों/स्त्रियों की शाखा
राष्ट्र सेविका समिति और विदेशों में लगने वाली
हिन्दू स्वयंसेवक संघ की प्रार्थना अलग है। संघ की शाखा या अन्य कार्यक्रमों में इस प्रार्थना को अनिवार्यतः गाया जाता है और ध्वज के सम्मुख नमन किया जाता है।
नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे
त्वया हिन्दुभूमे सुखं वर्धितोहम्।
महामङ्गले पुण्यभूमे त्वदर्थे
पतत्वेष कायो नमस्ते नमस्ते।। १।।
प्रभो शक्तिमन् हिन्दुराष्ट्राङ्गभूता
इमे सादरं त्वां नमामो वयम्
त्वदीयाय कार्याय बध्दा कटीयं
शुभामाशिषं देहि तत्पूर्तये।
अजय्यां च विश्वस्य देहीश शक्तिं
सुशीलं जगद्येन नम्रं भवेत्
श्रुतं चैव यत्कण्टकाकीर्ण मार्गं
स्वयं स्वीकृतं नः सुगं कारयेत्।। २।।
समुत्कर्षनिःश्रेयसस्यैकमुग्रं
परं साधनं नाम वीरव्रतम्
तदन्तः स्फुरत्वक्षया ध्येयनिष्ठा
हृदन्तः प्रजागर्तु तीव्रानिशम्।
विजेत्री च नः संहता कार्यशक्तिर्
विधायास्य धर्मस्य संरक्षणम्।
परं वैभवं नेतुमेतत् स्वराष्ट्रं
समर्था भवत्वाशिषा ते भृशम्।। ३।।
हे परम वत्सला मातृभूमि! तुझको प्रणाम शत कोटि बार।
हे महा मंगला पुण्यभूमि! तुझ पर न्योछावर तन हजार।।
हे हिन्दुभूमि भारत! तूने, सब सुख दे मुझको बड़ा किया;
तेरा ऋण इतना है कि चुका सकता न जन्म ले एक बार।
हे सर्व शक्तिमय परमेश्वर! हम हिंदुराष्ट्र के सभी घटक,
तुझको सादर श्रद्धा समेत, कर रहे कोटिशः नमस्कार।।
तेरा ही है यह कार्य हम सभी, जिस निमित्त कटिबद्ध हुए;
वह पूर्ण हो सके ऐसा दे, हम सबको शुभ आशीर्वाद।
सम्पूर्ण विश्व के लिये जिसे, जीतना न सम्भव हो पाये;
ऐसी अजेय दे शक्ति कि जिससे, हम समर्थ हों सब प्रकार।।
दे ऐसा उत्तम शील कि जिसके सम्मुख हो यह जग विनम्र;
दे ज्ञान जो कि कर सके सुगम, स्वीकृत कन्टक-पथ दुर्निवार।
कल्याण और अभ्युदय का, एक ही उग्र साधन है जो;
वह मेरे इस अन्तर में हो स्फुरित वीरव्रत एक बार।।
जो कभी न होवे क्षीण निरन्तर और तीव्रतर हो ऐसी;
सम्पूर्ण हृदय में जगे ध्येय-निष्ठा स्वराष्ट्र से बढे प्यार।
निज राष्ट्र-धर्म रक्षार्थ निरन्तर, बढ़े संगठित कार्य-शक्ति;
यह राष्ट्र परम वैभव पाये ऐसा उपजे मन में विचार।।